लोहड़ी पर निबंध – Essay on Lohri in Hindi
Essay on Lohri Festival in Hindi
भूमिका: हमारे भारत देश में सभी त्योहार बड़े उत्साह से मनाये जाते हैं। लोहड़ी देश का विशेषकर पंजाब का प्रसिद्ध त्योहार है। लोहड़ी शब्द दो शब्दों के मेल से बना है- तिल़रोड़ीत्रतिलोड़ी बाद में यह शब्द बिगड़कर लोहड़ी, लोही और लोई के नाम से मशहूर हो गया। यह त्योहार माघ मास को मकर संक्रान्ति से एक दिन पहले रात के समय मनाया जाता है।
महत्व: यह त्योहार वैदिक काल से चला आ रहा है। पुराने समय में देवताओं को खुश रखने के लिए आर्य लोग हवन-यज्ञ किया करते थे। हवन से सारा वातावरण कीटाणु रहित और शुद्ध हो जाता एवं यह वर्षा करने में भी सहयोग देते हैं जिससे किसानों की खेती भी भरपूर होती थी।
इतिहास: ‘सती दहन’ की पौराणिक कथा से भी यह त्योहार जुड़ा हुआ है। लोहड़ी के त्योहार पर वधुपक्ष वाले वर पक्ष वालों का खूब आदर-सत्कार करके उन्हें रेवड़ी, मिठाई, कपड़े आदि उपहार के रूप में देते हैं।
इस त्योहार का सम्बन्ध मुग़ल काल के डाकू दुल्ला भट्टी से भी जुड़ा हुआ है। जो अमीरों के प्रति क्रूर व ग़रीबों के प्रति दयालु था। एक दिन जंगल में दुल्ला भट्टी ने ग़रीब ब्राह्मण को रोते हुए गुज़रते देखा। उसने ब्राह्मण के रोने का कारण पूछा। ब्राह्मण ने बताया कि उसकी सुन्दरी और मुन्दरी नाम की दो सुन्दर कन्याएँ हैं। राजा दोनों कन्याओं को प्राप्त करना चाहता है। उसकी राम कहानी सुनकर डाकू का दिल पसीज गया। उसने ब्राह्मण को धीरज बँधाया।
राजा को कानों-कान ख़बर न हो इसलिए जंगल में रात के अंधेरे में आग जलाकर गाँव के सब लोग इकट्ठे हो गए। दुल्ला भट्टी ने धर्म-पिता बनकर सुन्दरी और मुन्दरी का कन्यादान किया। भाँवर के समय उनके द्वारा ओढ़े हुए सालू (दुपट्टे) भी फटे हुए थे। ग़रीब ब्राह्मण के पास देने के लिए कुछ नहीं था। गाँव वालों ने भरपूर सहायता की। जिनके वहाँ पुत्रों का विवाह या पुत्र/पौत्र पैदा हुए थे उन्होंने कन्याओं को खुशी में विशेष उपहार दिए। दुल्ला भट्टी के पास उस समय केवल सेर (1000 ग्राम) शक्कर थी। उसने शगुन में वही दी। इस घटना के बाद हर वर्ष लोहड़ी आग जलाकर मनाई जाती है। आज भी माँ-बाप अपनी बेटियों को उपहार स्वरूप सामग्री भेंट करते हैं।
लोहड़ी बाँटना और माँगना: इन दिनों मकई, दालें, बाजरा, तिलहन, मूँगफली आदि फसलें घर आ जाती हैं। नाई, धोबी, ग्वाला, कुम्हार, कहार आदि सेवकों और ग़रीबों को दान दिया जाता है। फ़सल का कुछ अंश अग्नि में आहुति के रूप में डाला जाता है। इस त्योहार में अमीर-गरीब, छोटे-बड़े, हिन्दू-मुस्लिम-सिक्ख-ईसाई का कोई भेद-भाव नहीं होता।
कई दिन पहले से ही लड़के-लड़कियाँ टोलियाँ बनाकर यह लोकगीत गाकर घर-घर लोहड़ी माँगने जाते हैं। लोहड़ी माँगते समय गाये जाने वाले लोकगीत इस प्रकार हैं………..
‘दे माई पाथी, तेरा पुत चढूगा हाथी।
हाथी हेठ कटोरा, तेरे पुत जम्मूगा गोरा।
गोरे ने खादी टिक्की, तेरे पुत-पौत्रे इक्की
इक्कियां ने कीती कमाई, सानूं टोकरा भरके पाईं।’’
सुन्दर मुन्दरीये-हो,
तेरा कौन विचारा हो,
दुल्ला भट्टी वाला हो,
दुल्ले दी धी ब्याही हो,
सेर शक्कर पाई हो,
कुड़ी दा सालू पाटा हो,
कुड़ी दा जीवे चाचा हो,
चाचा चूरी कुट्टी हो,
लम्बरदारा लुट्टी हो,
गिन-गिन पोले लाए हो,
इक पोला रह गया हो,
सिपाही फड़ के लै गया हो……..
‘‘साडे पैरां हेठ सलाइयां, असी केहड़े वेले दीया आइयां।
साडे पैरा हेठ रोड़, सानू छेती-छेती तोर।’’
मनाने का ढंग: लोग लोहड़ी के रूप में पैसे मूँगफली, रेवड़ी, उपले, लकड़ियां इत्यादि देते हैं। जिनके यहां उस वर्ष लड़के की नई शादी या फिर पुत्र/पौत्र आदि पैदा हुआ होता है, उनके घरों में विशेष तौर पर बधाई माँगी जाती है। उनसे हठ करके ज़्यादा पैसे और सामान की माँग की जाती है। पड़ोसियों एवं रिश्तेदारों के साथ मिलकर फिर रात को गोलाकार में उपले और लकड़ियां लगाकर फिर उन्हें जलाया जाता है। उसमें आहुति के रूप में घी, तिल, चिड़वे आदि डालते हुए गाया जाता है-
‘‘ईशर आ दलिद्र जा, दलिद्र दी जड़, चुल्हे पा।’’
फिर गली-मुहल्ले वाले सब मिलकर रेवड़ी, भुग्गा, मूंगफली, गच्चक, खीलें और पकवान खाते हैं। यह त्योहार आमतौर पर 13 जनवरी के आस-पास होता है। ‘लोहड़ी पाला खोड़ी’ कहा जाता है।
आजकल जलती हुई आग के निकट बैठकर लोग लोकगीत गाते हैं और गिद्धा, भंगड़ा आदि लोकनृत्य करते हैं, जिससे इस त्योहार का आनंद और बढ़ जाता है।
उपसंहार: जलती हुई आग़ की शिखा भेदभाव से ऊपर उठने की प्रेरणा देती है। लोहड़ी का त्योहार गुड़ और तिल की तरह एक हो जाने, प्यार, हँसी और खुशी से एकता को बढ़ाने का संदेश देता है।
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